Shraddha Walker Murder, एक और प्रेम कहानी का अंत, ऐसा अंत जिसके दर्द की चीखें सदियों तक गूँजती रहेंगी और रूह कँपा देंगी हर उस शख्स की, जो प्रेम की इस बेतरतीब परिभाषा को जानेगा।
प्रेम श्रद्धा और आफताब का
गए वो ज़माने लैला-मजनू और हीर-रांझा के, जो एक-दूजे के लिए अपनी जान दे गए। अब माहौल खौफनाक है, अब प्यार के लिए जान दी नहीं जाती, उलट ले ली जाती है। यही उदाहरण तो छोड़ गए हैं श्रद्धा और आफताब, जिसमें एक इंसान मोहब्बत बुनता रहा और दूसरा उस मोहब्बत के 35 टुकड़े कर गया।
हर जगह लोगों को यही कहते हुए सुन रहा हूँ कि ‘यही होना चाहिए ऐसी लड़कियों के साथ’, ‘परिवार को छोड़कर आई थी, यह तो होना ही था’, ‘ठीक हुआ जो मर गई’, ‘उसका मर जाना ही बेहतर था’, फलाँ.. फलाँ..।
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आपको ऐसा नहीं लगता कि अपने मुँह से ऐसी बातें निकालकर आप आफताब जैसे दरिंदों को शह दे रहे हैं? यदि आप भी उन लोगों में शामिल हैं, जो यह कहते हैं कि ‘मूर्ख होती हैं ऐसी लड़कियाँ, जो माता-पिता के रोने पर भी नहीं पिघलतीं’, तो ठंडे दिमाग से ज़रा सोचिए, क्या वे सच में मूर्ख का चोला ओढ़ने को मजबूर होतीं, यदि उन्हें सही समय पर आम और इमली में अंतर बताया जाता? जो बात बारह बर्ष की आयु में बताना चाहिए,
वह बात यदि आप पच्चीस की आयु में बताएँगे, तो अपने शरीर के 35 टुकड़े करवाने के लिए हर गली में खुद एक श्रद्धा तैयार करते चले जाएँगे। मैं चाहता हूँ कि मेरी यह बात आपको कड़वी लगे, ताकि अगली श्रद्धा के साथ प्यार का घिनौंना मजाक न हो। यह तो साफ है कि यहाँ श्रद्धा की कोई गलती नहीं है, महज़ एक के कि श्रद्धा ने आफताब पर आँख मूँदकर भरोसा किया। कई संकेत मिलने के बाद भी वह खुद को उससे अलग नहीं कर सकी। ज़रा सोचिए, जो परिवार उसे अकेला होने ही नहीं देता, तो क्या खतरा भाँप लेने के बावजूद वह खुद को मौत के मुँह में जान-बूझकर झोंकती??
यदि समय रहते बढ़ती उम्र में अपने और पराए, सही और गलत के बीज बच्चे के मन-मस्तिष्क में बो दिए जाए, तो शायद वह इंसान की परख करना सीख सके। लेकिन हम यहाँ एक बहुत बड़ी गलती करते हैं, परिपक्व हो जाने के बाद बच्चों को सही और गलत के मायने पढ़ाना शुरू करते हैं, तब बातों के कोई मायने नहीं रहते।
छोटी उम्र में बच्चों को स्कूल में गुड टच और बेड टच की सीख दी जाती है, जिसे अब गंभीरता से लेने की जरुरत है। पेरेंट्स भी बच्चों को गुड पर्सन और बेड पर्सन के बारे में बताएँ। उन्हें इस काबिल बनाएँ कि वे आपसे अच्छी-बुरी हर बात शेयर करें, इसके लिए आपको उनके पेरेंट्स से पहले अच्छे दोस्त बनकर रहना होगा।
उन पर बंदिशें न लगाएँ, ताकि वे आपसे कोई बात न छिपाएँ। उनके बैग्स, कॉपीज़ और मोबाइल चेक करते रहें। आपत्तिजनक वस्तु मिलने पर उन पर दबिश न करें, बल्कि उन्हें प्यार से समझाएँ। उनके दोस्त किस तरह के हैं, संगत कैसी है, इस पर भी ध्यान दें और उनकी गतिविधियों पर नज़र रखें, ताकि बात बढ़ने से पहले इसे संभाला जा सके।
बच्चों पर इल्ज़ाम लगाना छोड़िए साहब, अपने गिरेबान में भी एक दफा झाँकिए कि आप कहाँ कम पड़ रहे हैं। समय रहते बच्चों को खुद से दूर जाने से बचा लें, यही दरखास्त करता हूँ, नहीं तो 35 टुकड़े होने के बाद सिर्फ टुकड़े ही ला सकोगे, बेटी वापिस नहीं ला सकोगे। श्रद्धा सबक दे गई है उन तमाम पेरेंट्स को, जो गलत समय पर सही शिक्षा देने की भूल करते चले आ रहे हैं। जो अब भी मेरी बात समझ आई हो, तो बात है।
(अतुल मलिकराम (समाजसेवी) य़ह लेखक के स्वयं के विचार हैं. खबर हिंदी की टीम ने इस लेख को संपादीत नहीं किया है।)