Major Sanjay Chauhan भारतीय सेना के शौर्य में एक ऐसा अध्याय हैं जो पीढ़ियों तक प्रेरित करता रहेगा। राष्ट्रप्रेम से प्रेरित सैनिकों की शौर्यगाधा सरहदों से भी परे होती है। शायद इसलिए अमेरिकी नौसेना के दिग्गज Kyle Hockenberry का उद्धरण भारतीय सेना के सबसे आत्मविश्वासी और साहसी अधिकारियों में से एक, मेजर संजय चौहान के बारे में भी उपयुक्त लगता है। Kyle ने कहा था, जिन्हें मैं प्यार करता हूं मैं उन लोगों के लिए बलिदान दूंगा। मां भारती के सपूत और सेना में मेजर की रैंक तक पहुंचे संजय चौहान के लिए भी Kyle का कथन बिल्कुल सटीक है।
अगस्त 1989 में चंडीगढ़ रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर 1 पर एक लंबा और गोरा कॉलेज का छात्र वर्दी में एक सेना अधिकारी को घूर रहा था। दोनों नई दिल्ली जाने के लिए शताब्दी एक्सप्रेस का इंतजार कर रहे थे। ट्रेन किसी भी समय आने वाली थी। कॉलेज का ये छात्र भारतीय सेना के सबसे बहादुर अधिकारियों में एक मेजर संजय चौहान बनेगा, शायद उस समय स्टेशन पर खड़े किशोर संजय को भी इस बात का भान नहीं रहा होगा।
शौर्य चक्र से सम्मानित मेजर संजय ने जब अपनी किशोरावस्था में सेना के अधिकारी को वर्दी पहने देखा, तब चंडीगढ़ रेलवे स्टेशन पर बारिश हो रही थी। उसने इस पवित्र वर्दी को खुद भी पहनने का सपना देखा। संजय ने हिम्मत जुटाई और सेना अधिकारी के पास गया। अपना परिचय देने के बाद उसने सेना अधिकारी से पूछा कि वह सेना में कैसे भर्ती हो सकता है। अधिकारी ने उन्हें भारतीय सैन्य अकादमी (आईएमए), देहरादून के बारे में बताया।
संजय पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश के शांत और खूबसूरत शहर सोलन के रहने वाले थे। उसका कोई दोस्त और रिश्तेदार सेना में नहीं था। संजय ने अपनी स्कूली शिक्षा और विज्ञान में स्नातक तक पढ़ाई सोलन से की। वह पढ़ाई में अच्छे थे। स्कूल और कॉलेज में भी वे एक अच्छे खिलाड़ी रहे।
स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, संजय का सेलेक्शन उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हुआ। छात्रवृत्ति पर रसायन विज्ञान में स्नातकोत्तर के लिए चुने गए संजय जब चंडीगढ़ रेलवे स्टेशन पर सैन्य अधिकारी से मिले थे, तब वह ईद की छुट्टियों के बाद विश्वविद्यालय वापस लौट रहे थे।
अलीगढ़ पहुंचने के बाद, संजय ने आईएमए देहरादून के लिए प्रवेश परीक्षा के बारे में और अधिक जानकारी जुटानी शुरू की। IMA की प्रवेश परीक्षा दुनिया की सबसे कठिन परीक्षाओं में से एक मानी जाती है। परीक्षा देने वाले 2 लाख से अधिक छात्रों में से सिर्फ 150 उम्मीदवारों का चयन किया जाता है, लेकिन संजय ने ठान लिया था कि उन्हें आईएमए ज्वाइन करना ही है। उन्होंने पूरी तैयारी से तैयारी शुरू कर दी।
जल्द ही संजय की मेहनत रंग लाई और 20 जुलाई 1990 को संजय ने भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून के 89 नियमित पाठ्यक्रम में रिपोर्ट किया। जेंटलमैन कैडेट (जीसी) संजय चौहान को इंफाल कंपनी आवंटित की गई। अगले डेढ़ साल तक संजय ने आईएमए में बहुत मेहनत की और जल्द ही सहपाठियों के बीच लोकप्रिय हो गए। उन्होंने कई अच्छे दोस्त बनाए। सहपाठी संजय को प्यार से “चाऊ” कहकर बुलाते थे। यह उपनाम हमेशा संजय के साथ रहा।
चाऊ, पढ़ाई के अलावा क्रॉस कंट्री और एथलेटिक्स में भी बहुत अच्छे थे। शिविरों में उनका प्रदर्शन असाधारण रहा और शिविरों के दौरान वह हमेशा सबसे भारी युद्ध गियर ले जाने के लिए स्वेच्छा से काम करते थे। 14 दिसंबर, 1991 को सेकेंड लेफ्टिनेंट संजय चौहान को राजपूताना राइफल्स में अधिकारी के रूप में कमीशन मिला। राजपूताना राइफल्स भारतीय सेना में सबसे बहादुर रेजिमेंट में से एक है।
चाऊ की नियुक्ति के बाद उन्होंने राजस्थान के लालगढ़ जट्टन में पहली ड्यूटी ज्वाइन की। चाऊ की प्रेरणा और समर्पण को देखकर उनकी बटालियन के कमांडिंग ऑफिसर ने उन्हें प्लाटून कमांडर बना दिया। कमांडो प्लाटून नाम से जाना जाने वाली टुकड़ी को चाऊ ने प्रशिक्षण देना शुरू किया। टुकड़ी अलग-अलग हालात में युद्ध करने में सक्षम बनी।
1993 में कश्मीर घाटी में पैदा हुए हालात को नियंत्रित करने के लिए संजय के बटालियन को आदेश प्राप्त हुआ। बता दें कि कुछ ही साल पहले कश्मीर घाटी में उग्रवाद भड़का था, ऐसे में हालात तनावपूर्ण होने के साथ-साथ चुनौतीपूर्ण भी थे। चाऊ ने अपनी पलटन को प्रशिक्षित करने का अधिकतम भार उठाया। बटालियन कश्मीर घाटी में चौकीबल चली गई। प्लाटून कमांडर होने के नाते, चाऊ ने अपने अधिकार क्षेत्र के तहत क्षेत्र में सक्रिय उग्रवादियों की खुफिया जानकारी एकत्र करनी शुरू कर दी। खुफिया नेटवर्क काबिले तारीफ था। उन्होंने छोटी-छोटी टीमों में काम करना शुरू कर दिया और सफलतापूर्वक आतंकवादियों का सफाया करना भी शुरू कर दिया।
22 अक्टूबर 1994 को चाऊ अपने गृहनगर सोलन में छुट्टी मनाने जाने वाले थे। छुट्टी का मौका इसलिए भी खास था क्योंकि उन्हें ड्रीम गर्ल से सगाई करनी थी। ये वही सपनों की लड़की थी जिनसे संजय बेपनाह मोहब्बत करते थे। छुट्टी से ठीक एक दिन पहले 21 अक्टूबर 1994 को संजय को विश्वसनीय खुफिया सूचना मिली। इंटेलिजेंस इनपुट के मुताबिक 28 अक्टूबर 1994 की सुबह लगभग 70-80 आतंकवादी वारिबन वन के गांव लचिमपोरा में जमा होने वाले थे। ये इलाका उनकी पलटन के अभियान क्षेत्र के तहत आता था।
चाऊ इस इनपुट की गंभीरता और महत्व दोनों समझते थे। वे जानते थे कि एक बार में अधिकतम उग्रवादियों को खत्म करने का आदर्श अवसर उनके सामने आने वाला था। बिना एक भी पल गंवाएं मेजर संजय ने अपनी छुट्टी रद्द कर दी और पलटन को बुलाया। शानदार योजना बनाने के बाद मेजर संजय ने वरिष्ठ अधिकारियों के सामने प्लान पेश किया। योजना बहुत साहसिक थी। बहुत सारे जोखिम भी शामिल थे, लेकिन वरिष्ठ अधिकारियों को मेजर संजय की क्षमताओं पर पूरा भरोसा था। इसका कारण पिछले एक साल में मिली कई सफलताएं थीं। बटालियन को काउंटर इंसर्जेंसी ऑपरेशन में तैनात किया गया था।
चाऊ अपने चार सिपाहियों की टीम के साथ आगे बढ़े। उन्होंने पारंपरिक सलवार कमीज का वेश बनाया और उसके ऊपर फेरेन्स भी पहनी। फेरेन्स बड़े आकार के अंगरखे जैसे होते हैं। उन्होंने पेशावरी पगड़ी को हेडगियर के रूप में पहना पोशाक से संजय और चारों सिपाही घाटी में सक्रिय उग्रवादियों जैसे लगने लगे। चाऊ साथी सिपाही थोड़ी-बहुत पश्तो भाषा भी जानते थे। इसलिए उग्रवादी की मंडली में घुलना-मिलना आसान होगा।
29 अक्टूबर 1994 को दिन की छुट्टी के समय, चाऊ और उनकी टीम, फेरेन्स के नीचे एके-47 असॉल्ट राइफल छिपाकर पहाड़ के ऊपर से गाँव के मैदान में चले गए। इसी जगह पर आतंकवादी जमा हुए थे। एक जूनियर कमीशंड ऑफिसर (जेसीओ) और 20 लोग रिजर्व पार्टी के रूप में मेजर संजय की टीम में शामिल थे। पारंपरिक पोशाक पहने मेजर संजय की टुकड़ी के सिपाही ऊपर की पहाड़ी से कवर दे रहे थे। इस टीम को उनकी सहायता के लिए आना था।
चाऊ और उनकी टीम उग्रवादियों के पास पहुंची लेकिन उच्चारण के कारण जल्द ही कुछ उग्रवादियों के मन में संदेह पैदा हो गया। उपयुक्त समय का एहसास होते ही, चाऊ और उनकी टीम ने गोलीबारी शुरू कर दी। चार सिपाहियों के सहयोग से संजय ने 17 आतंकवादियों को मौके पर ही मार गिराया। अन्य उग्रवादी भाग खड़े हुए। हालांकि, आतंकी फिर से संगठित हुए और चाऊ को घेर लिया।
चाऊ और उनकी टीम गांव के पास ही एक छोटी सी पहाड़ी में छिपी हुई थी। 25-30 उग्रवादियों ने चाऊ की टुकड़ी को घेर लिया। सहयोगी पलटन से सहायता के लिए चाऊ ने रिजर्व पार्टी के जूनियर कमांडिंग ऑफिसर (जेसीओ) से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन अफसोस रेडियो संचार नहीं हुआ।
खूंखार आतंकियों से घिरी चाऊ की टीम ने बहादुरी से दहशतगर्दों का सामना किया। उनकी टीम ने गोला-बारूद खत्म होने से पहले 11 और आतंकवादियों को मार गिराया। आतंकवादियों के साथ आमने-सामने की लड़ाई शुरू हो गई। चाऊ और उनकी टीम ने आठ और आतंकवादियों को नंगे हाथों मार गिराया। कुल 36 आतंकियों को मार गिराने वाली चाऊ और चार अन्य सिपाही आतंकवादियों के कब्जे में आ गए।
जिंदा पकड़ने के बाद चाऊ और साथियों को उग्रवादियों ने बेरहमी से प्रताड़ित किया। शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर बोरियों में भरकर फरार हुए दहशतगर्द पीठ दिखाकर भागे, लेकिन मेजर संजय चौहान और उनकी टीम भारतीय सेना की वीरता और बहादुरी की सर्वोच्च परंपराओं में स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गई। अपनी सुरक्षा की परवाह किए बिना राष्ट्र की सेवा में अपने प्राणों की आहुति देने वाले मेजर संजय और साथी सैनिकों की वीरता बेमिसाल रही। असाधारण शौर्य और विशिष्ट कार्य के लिए मेजर संजय चौहान को शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया। दुश्मन को नेस्तनाबूंद करने का कारनामा करने वाले सैनिकों को दिया जाने वाला ये देश का तीसरा सर्वोच्च पुरस्कार है।
हिमाचल प्रदेश सरकार ने अपने निस्वार्थ कार्यों से राष्ट्र को गौरवान्वित करने वाले अधिकारी की समृद्ध और बहादुर विरासत को श्रद्धांजलि देने के लिए सोलन के मुख्य चौराहे पर मेजर संजय चौहान की प्रतिमा स्थापित कराई है। सितंबर 2020 में, प्रतिमा को सोलन कैंट के प्रवेश द्वार पर स्थानांतरित कर दिया गया।
यहां प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक फ्रांसिस मैरियन क्रॉफर्ड को उद्धृत करना अतिश्योक्ति नहीं जिसमें उन्होंने सैनिकों के शौर्य का बखान करते हुए कहा, वे गिर गए, लेकिन उनकी शानदार कब्रें, उस कारण की याद दिलाती हैं, जिसे बचाने के लिए उन्होंने सर्वोच्च बलिदान दिया। हम मेजर संजय चौहान, शौर्य चक्र को श्रद्धांजलि देते हैं। आप हमेशा हमारे दिलों और यादों में रहेंगे। शहीद संजय हम सभी के लिए हमेशा प्रेरणा स्रोत बने रहेंगे। आपकी शाश्वत शांति के लिए हमारी प्रार्थना।
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लेखक को जानिए-
Jasinder Singh Sodhi भारतीय सेना के कोर ऑफ इंजीनियर्स से सेवानिवृत्त हुए हैं। एनडीए, खडकवासला और आईआईटी कानपुर के पूर्व छात्र जसिंदर ने एमबीए की डिग्री भी हासिल की है। कानून की बारीकियों की ओर रुझान हुआ तो एलएलबी की पढ़ाई भी की। इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में शामिल Jasinder Singh Sodhi ने इस आलेख में जो व्यक्त किया है, ये उनके निजी विचार हैं। सोशल मीडिया इनसे @JassiSodhi24 (Twitter और Koo) पर संपर्क किया जा सकता है।
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