नरसिंह सेवा सदन पीतमपुरा दिल्ली में चातुर्मास्य के अवसर पर आयोजित सायंकालीन सत्संग सभा में परमाराध्य परमधर्माधीश उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शङ्कराचार्य स्वामिश्रीः अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती ‘१००८’ ने कहा कि सनातन धर्म सदा से ही समग्रता की बात करता है। इसमें कोई भी बात एकांगी नहीं है। इहलोक के साथ-साथ परलोक की भी चिन्ता हमारे धर्मशास्त्र करते हैं।हम सभी को इस लोक में अपने अभ्युदय के लिए प्रयत्न करते हुए परलोक को भी सुधारने का प्रयास कर लेना चाहिए।
उन्होंने कहा कि लोग यह समझते हैं कि धन के अर्जन से सुख की प्राप्ति हो जाएगी परन्तु संस्कृत के एक श्लोक में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि विद्या से विनय, विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म और फिर धर्म से सुख होता है। यह प्रक्रिया साफ बताती है कि धन से जब व्यक्ति धर्म करेगा तभी उसे सुख प्राप्त होगा। सीधे धन से सुख नहीं पाया जा सकता।
शङ्कराचार्य ने सामान्य और विशेष दो प्रकार के धर्म की बात बताई। कहा कि ३७ प्रकार के सामान्य धर्म हैं जिसका पालन कोई भी कर सकता है। इसके अतिरिक्त कुछ विशेष प्रकार के धर्म है जो तत् तत् विशेष जनो के लिए उल्लिखित हैं।
आगे भारत देश के आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते का उल्लेख करते हुए शङ्कराचार्य जी ने कहा कि संस्कृत का यह वाक्य मुण्डकोपनिषद् से लिया गया है। जिस देश का आदर्श वाक्य संस्कृत में हो वह देश स्वतः ही हिन्दू राष्ट्र हो जाता है।
इसके लिए अलग से कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है तो इस बात का कि प्रत्येक मनुष्य के जीवन को धर्ममय बनाया जाए। जब भारत का प्रत्येक व्यक्ति धर्ममय जीवन जीने लगेगा तो अपने आप ही यह देश हिन्दू राष्ट्र हो जाएगा। केवल नामकरण कर देने से हिन्दू राष्ट्र नहीं होगा।
सत्संग सभा का शुभारम्भ जगद्गुरुकुलम् के छात्रों द्वारा किए गये वैदिक मंगलाचरण से हुआ। शङ्कराचार्य जी महाराज के प्रवचन के पूर्व श्री अजय गौतम जी एवं श्री अजय शर्मा जी ने अपने उद्गार व्यक्त किए। बिरुदावली का वाचन ब्रह्मचारी परमात्मानन्द जी ने किया। पं जयदीप दुबे ने शङ्कराचार्य जी की पादुकाओं का पूजन किया। मंच का संचालन श्री अरविन्द मिश्र जी ने किया।