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  • July 27, 2024
  • Last Update July 25, 2024 2:05 pm
  • Noida

क्यों women empowerment की परिभाषा से बाहर हैं घरेलू या खेतिहर महिलाएं?

क्यों  women empowerment की परिभाषा से बाहर हैं घरेलू या खेतिहर महिलाएं?

आज महिलाओं की शिक्षा और उनमें फैसले लेने की शक्ति में बढ़ोतरी देखी जा रही है। यह न केवल भारत में बल्कि विश्व के हर कोने में देखा जा सकता है। इसके बाद भी घरेलू महिलाएं सशक्तिकरण ( women empowerment)  की परिभाषा से बाहर हैं। सशक्त होना सिर्फ आर्थिक रूप और किसी ओहदे तक पहुँच कर सिमट कर देखने की परंपरा बन गई है। इतना ही नहीं, बाहर निकलकर पैसा कमाना ही उसके वजूद को देश की अर्थव्यवस्था से जोड़कर देखने में इस्तेमाल किया जाता है।

जिस प्रकार की सीमित सोच कभी बाहर निकल कर काम करने वाली महिलाओं के बारे में व्याप्त थी, आज वही सोच घरेलू महिलाओं को लेकर भी पनप रही है। देश में अनाम रूप से अर्थव्यवस्था को मजबूती देना, घर या अपने विचार में अपने आप को स्थापित करना, अपने खेतों में काम करना, अकेले मीलों चल कर अपना काम खुद करना, जैसे उदाहरण सशक्तिकरण के दायरे से बाहर है। हमेशा से घर में रहने वाली महिलाओं ने बिना वेतन के जो कार्य न सिर्फ अपने घर के लिए किए हैं, बल्कि समाज और देश के लिए भी किए हैं। अगर उसका मूल्य आंका जाए तो जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा उसमें शामिल हो सकता है।

बिना वेतन काम करती किसान महिलाएं

उदाहरण के लिए, देश में आज भी कृषि एक मुख्य व्यवसाय है, जिसका करीब 70% हिस्सा महिलाएं हैं और उनमें भी बिना वेतन के काम करने वाली महिलाओं का बड़ा हिस्सा शामिल है। मगर किसान की बात आते ही सिर्फ पुरुषों का चेहरा या पुरुष ही दिखाए जाते हैं। महिला किसान की गिनती वैतनिक या जमीन का मालिक होने पर तय की जाती है।
महिलाओं को बेड़ियों में जकड़ता पूंजीवाद

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दूसरी ओर, देश के सबसे कठिन परीक्षा में से एक, यूपीएससी में शीर्ष स्थान पाने वाली लड़कियों को आदर्श के रूप में स्थापित किया जा रहा है। पहले किसी भी आम इंसान के लिए कलेक्टर बनना एक ख्याति मान ली गई और अब उसमें हर नारी को फिट करने की कोशिश की जा रही है। जैसे उनके लिए पैदा होने का मकसद सिर्फ कलेक्टरी हो। कामकाजी महिला ही सफल और सशक्त होगी और बाकी सबको भी इसी में लाना है।

यह विचार महिला सशक्तिकरण का नहीं, अपितु पूंजीवाद का रूप अधिक है। उसके कार्य को उचित मूल्य न देने और चंद तारीफों के बल पर दो अलग परिवेश की महिलाओं के बीच आर्थिक गतिविधियों के नाम पर हर महिला को जबरदस्ती श्रमिक बनाना है। यह महिलाओं को सशक्त करने की जगह अदृश्य बेड़ियों में बांध देता है, जिसमें उसके हक का फैसला कोई और करता है। इसे हम शहरों में गांवों से परिवार सहित पलायन कर आने वाली हजारों महिलाओं द्वारा असंगठित क्षेत्रों में काम करने के रूप में देख सकते हैं। उनमें से कितनी महिलाओं को कुछ सुविधाएँ भी प्राप्त होती हैं, यह विचारनीय हैं।

सशक्त होना अन्याय बर्दाश्त नहीं करना भी है

सशक्त होना, अन्याय को बर्दाश्त नहीं करना भी होता है। मगर आर्थिक रूप से मजबूत कितने प्रतिशत महिलाएं अपने साथ होने वाले किसी भी प्रकार के अन्याय के खिलाफ बोल पाती हैं? यह भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। आर्थिक मजबूती के नाम पर महिलाएं प्यार से और कई बार जबरदस्ती नई दास भी बनाई जा रही हैं। दूसरी तरफ, अगर कामकाजी ग्रामीण महिलाओं को देखें, जिसमें सबसे बड़ा रोल आशा और आंगनवाड़ी के रूप में कार्यरत महिलाओं का है। ग्रामीण भारत को कोविड से ये महिलाएं ही उबार लाईं, जिसका बहुत कम उल्लेख होना ये दर्शाता है कि महिला अगर समाज में श्रम करती भी है तो उसके परिश्रम का फल उसे सबसे कम दिया जाता है।

कहाँ है आशा वर्कर जैसी महिलाओं का सशक्तिकरण

देश भर में सबसे हाशिये पर खड़ी महिलाएं कोविड पीड़ित के बुखार की जानकारी लेतीं और जरूरी दवाएं उसके घर तक पहुँचातीं दिखीं। इसकी फोटो कुछ बड़े अधिकारी ट्विटर पर डाल कर खुद की पीठ थपथपा रहे थे। आज अच्छे बदलाव के बावजूद बेहद कम वेतन उसका सशक्त होना तो नहीं दर्शाता है।

शहरों में कोविड के बाद नौकरियां गंवाती महिलाएं

शहरों में कोविड ने बड़ी कंपनियों काम करने वालों को घर से कार्य करने की छूट दी जिसको बड़े पैमाने पर स्वीकार किया गया। परंतु जब दोबारा कार्यालय आ कर काम करने की बात आई, तो टाटा जैसी प्रतिष्ठित संस्थान में महिलाओं के इस्तीफे की बाढ़ आ गई। यह एक विचार उसके अपने हक में लिए फैसले का नतीजा है, जिसमें महिलाओं ने खुद निर्णय लिया। यह वैसे ही है जैसे घर से बाहर निकल कर काम करने का फैसला लेना होता है।

सशक्तिकरण का सही मतलब

यही फैसला गांवों में रहने वाली ज्यादातर महिलाएं लेती हैं, परंतु वह कभी सशक्तिकरण के दायरे में नहीं आ पाईं। महिलाओं के समूह द्वारा ही बोला जा रहा है कि ग्रामीण महिलाओं का विकास नहीं हो पा रहा है। वह अपने फैसले नहीं कर सकती हैं। जबकि यह पूर्ण सत्य नहीं है। सशक्तिकरण का मतलब बिना झिझक अपनी बात रख पाना है, अपने लिए फैसलें ले पाना है। अपनी पसंद से घूमना-फिरना, काम करना और कोई भी काम करना या काम नहीं भी करना शामिल है।

 

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