मणिपुर क्या फिर से संघर्ष के पुराने दिनों में लौट चला है? वहां थम-थमकर हो रही जातीय हिंसा ने इस सवाल को मौजूं बना दिया है। मणिपुर पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों से काफी अलग है। यहां के तमाम राज्यों में सशस्त्र संघर्ष हुए हैं, लेकिन वे सब अब अतीत बन चुके हैं। असम में ही सैकड़ों विद्रोही सक्रिय थे, लेकिन अब कमोबेश सभी शांत हैं। नगालैंड में तो नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नगालैंड- इसाक मुइवा गुट के साथ केंद्र सरकार का समझौता भी नहीं हो सका है, लेकिन फिलहाल यहां पर शांति है।
मणिपुर की जनजातियां इसके चरित्र को जटिल बनाती हैं। हम बेशक उनको कानूनी रूप से अनुसूचित जनजाति न बुलाएं, लेकिन वे खुद को अनुसूचित जनजाति ही मानती हैं। फिर, उनके अंदर भी कई उप-जनजातियां हैं, जिनमें खूब आपसी तनाव रहा है। 1997 में ही कुकी और उसकी उप-जनजाति पाइटी में जबर्दस्त हिंसा हुई थी। नगा भी यहां काफी हैं। फिर, म्यांमार से भी काफी संख्या में लोग भागकर यहां आए हैं, जिनको चिन कहा जाता है। इन सबके बीच संघर्ष तो है ही, जनजातियों के भीतर भी तनाव है। इससे मणिपुर अन्य राज्यों से अलग प्रकृति का हो जाता है।
जिस नजरिये से हम दूसरे राज्यों को देख सकते हैं, मणिपुर को नहीं देख सकते। यहां छोटे-मोटे तनाव होते रहे हैं, लेकिन पिछले पांच-छह साल में इसने जो उपलब्धि हासिल की है, वह उल्लेखनीय है। दशक-डेढ़ दशक पहले तक यहां शाम में चार बजे के बाद कफ्र्यू लग जाया करता था। ठहरने के लिए ढंग की जगह नहीं मिलती थी। परिवहन भी सुगम और सुरक्षित नहीं था। मगर अब यहां नए-नए होटल बन गए हैं।
आना-जाना भी आसान हो गया है। नौजवान भी अब ज्यादा दिखने लगे हैं, क्योंकि वे पहले अच्छी शिक्षा हासिल करने के लिए बेंगलुरु, दिल्ली चले जाते थे। तमाम तरह के कारोबार यहां शुरू हो चुके हैं। तरक्की की इन इबारतों से जातीय तनाव की आग मानो चिनगारी में बदल गई थी। मगर अब ताजा हिंसा के बाद माना जा रहा है कि आपसी अविश्वास की खाई इतनी गहरी हो जाएगी कि उसे पाट पाना काफी कठिन होगा। हाल-फिलहाल के दिनों में कुकी और मैतेई शायद ही एक-दूसरे पर भरोसा कर सकेंगे।