यूक्रेन में 15 महीने से युद्ध जारी है। इससे अमेरिका की पूरी योजना उलट गई है। इससे पहलेअमेरिका और नाटो ने यह सोच कर रूस-यूक्रेन विवाद में हस्तक्षेप शुरू किया था कि यह युद्ध यूरोप में रूसी प्रभाव को कम करने का एकमात्र तरीका है।
अमेरिका का अनुमान था कि नाटो हथियारों से लैस यूक्रेन जल्दी ही रूस पर भारी पड़ेगा, जिस तरह वह 90 के दशक में अफगानिस्तान में उलझा रहा था। वहीं, अमेरिका एक बार फिर महाशक्ति के रूप में पुनर्जीवित हो जाएगा। हालांकि ऐसा नहीं हुआ।
इस बीच गरीब, विकासशील देशों को अपने हितों को आगे बढ़ाने और एक मल्टी पोलर सिस्टम के स्वागत का मौका मिल गया है। अब दुनिया के कमजोर देश भी प्रमुख देशों के साथ बेहतर सौदेबाजी कर सकते हैं। भारत की विदेश नीति में भी इस प्रवृत्ति को देखा जा सकता है।
इसके साथ ही महाशक्तियों का भू-राजनीतिक संतुलन बदलता हुआ लग रहा है। यह चीन की ओर झुकता हुआ लग रहा है और अमेरिका के सामने मुश्किलें बढ़ी हैं।
वाशिंगटन ने मास्को और बीजिंग के बीच दरार पैदा करने की भी कोशिश की है, ताकि वह चीन के साथ नए पश्चिमी तालमेल का फायदा उठा सके।
बता दें कि अर्थव्यवस्था हमेशा पश्चिमी देशों के हाथों में रही है। अमेरिकी डॉलर का विरासती प्रभुत्व, अंतरराष्ट्रीय आपूर्ति शृंखलाओं पर उसका नियंत्रण और किसी पर सामूहिक प्रतिबंध लगाने की क्षमता। इसी वजह से अमेरिका को वास्तव में लगा कि वह न सिर्फ रूस को अस्थिर कर सकता है, बल्कि वैश्वीकरण का एक नया अध्याय भी लिख सकता है।
हालांकि रूस यूक्रेन के बीच जारी जंग से झटका रूस को लगने के बजाय यूरोप को ज्यादा लगा है। यूरोप में ऊर्जा व औद्योगिक संकट खड़ा हो गया और रूसी अर्थव्यवस्था पर वैसा असर नहीं हुआ, जैसा अमेरिका व नाटो ने चाहा था।
आज यूरोपीय बढ़ती महंगाई से जूझ रहा है। जर्मनी जैसे औद्योगिक दिग्गज देश मंदी की चपेट में आ गए हैं। वैश्विक प्रतिस्पद्र्धा में यूरोप पिछड़ रहा है। कई अन्य विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के साथ चीन और भारत ने पश्चिमी बाजारों की जगह ले ली। इससे रूस को नई जीवन रेखा मिली और अन्य देशों को सस्ती ऊर्जा से लाभ हुआ।
इस युद्ध ने पश्चिम के पूरे भू-राजनीतिक दांव पर सवाल उठा दिए हैं। शुरुआत में रूस को गहरा झटका लगा, लेकिन बाद में मास्को ने अलग रणनीति अपनाई। उसने नए क्षेत्रों पर कब्जा करने की पारंपरिक कवायद के बजाय यूक्रेन में स्थित सैन्य ढांचे को नष्ट करना और नीचा दिखाना शुरू कर दिया।
रूस विशाल खुले मैदानों में बड़े टैंकों से लड़ाई के साथ ही, यूक्रेनी मोर्चों पर सीधे हमला करने लगा। यूक्रेन के रणनीतिक लिहाज से महत्वपूर्ण शहरों व कस्बों में भीषण संघर्ष छेड़ दिया। रूस तमाम प्रमुख शहरी लड़ाई में जीत गया है, इससे उसे पूर्वी यूक्रेन में बढ़ने में मदद मिलेगी।
नाटो फिलहाल यूक्रेन को हुए नुकसान की भरपाई नहीं कर सकता। इतना ही नहीं नाटो देशों में भी एक बड़े और लंबे युद्ध को चलाए रखने की औद्योगिक क्षमता गंभीर रूप से घटी है। नाटो देशों ने 70 अरब डॉलर से अधिक की सैन्य सहायता भेजी है, जिसमें से अधिकांश हिस्सा अमेरिका से आया है।
इस बीच नाटो की हथियार प्रणालियां कम पड़ गई हैं, जिन्हें युद्ध की दिशा बदलने के लिए तैनात किया गया था। रूसी सेना कम से कम निम्नलिखित क्षमताओं में नाटो से आगे दिखती है – वायु रक्षा, इलेक्ट्रॉनिक युद्ध, तोपखाने / काउंटर आर्टिलरी और हाइपरसोनिक मिसाइलें। चिंता बढ़ रही है, नाटो समर्थन से यूक्रेन यदि टकराव बढ़ाता है, तो जाहिर है, रूस भी तगड़े जवाबी हमले के लिए तैयार है।